By Nitish Pandya
ज़मीर मरता जा रहा इन दिनों... शिथिल सी रूह पड़ी है उस चंचल हड्डियों और मांस के लिबास में.. तारे टूट रहे है काफी आएदिन... मगर इच्छापूर्ति की आशा किसी से नही रही। मनुष्य दूर ब्रह्मण्ड के कोने ख़ोज रहा इस गोल सी धरती पर पैदा होकर उसका सर गुम रहा भटका हुआ जो खुद है वो कोने कैसे खोजेगा... जिसका अस्तित्व सूक्ष्म है वो दूरी के आंकड़े कैसे बोलेगा... खैर छोड़ो... जल्द वक्त भी दूरी मापने की एक इकाई न रह पाएगा। इंसान बना हैवान... तो ठीक सही अब भगवान भी प्रायश्चित करता कलयुग के अंत मे फुट फुट कर रोएगा। तुम जो इस धरती के खत्म होने की बात कह रहे हो दिशाहीन होकर अंधो को रास्ता दिखा रहे हो माना धरती का सर्वनाश जल्द होने वाला है, उजाला घनघोर अंधकार होने वाला है हंसते खेलते वो हसीन चेहरा जो सुबह तुमसे मिलता है रात को अपने जीवन का सार रूपी कोना खोजे रोता है। शांत सी काली रात में जो जज्बातो का शंखनाद है रणभूमि में डटे है योद्धा, रण का सिर्फ बन रहे आहार है। पृथ्वी के अंत की तुम्हे क्यों फिक्र इतनी सताई है.... आसपास नजर घुमाओ चेहरे पढ़ो लाशो को मजबूरन..जिंदगी की रस्मे अदा करते देखो वेदना से संवेदना तक सबकी मौत हो चुकी भटकते कंकालों से भरे इस शमशान को देखो सूक्ष्म सा अस्तित्व जो था वो भी खतरे में है जज्बातो का होना भी जैसे.. रेगिस्तान में बहती नदी के बचे कतरे में है मुद्दे पे फिर आते है... तुम धरती बचाओ मरने दो जज्बातो को बहुत सारे पेड़ लगाओ सडने दो उनके आघातों को अमर करदेना इस धरती को मनुष्य के जाने से पावन तो हो ही जाएगी माना पशु,पेड़,पंछी भी जानते है प्यार की भाषा मगर कृष्ण जेसी अध्भुत रासलीला कहा से लाएगी। कण कण इस धरा का .. हरा भरा और पावन होगा । मगर इंसानो के मिटजाने पर न गोकुल न वृन्दावन होगा।
By Nitish Pandya
❤️❤️🫡🫡
Wow💕
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Very nice brother
❤️❤️