By Rachana Chaitanya Navathe
पुकार रहा था कोई
हर सुबह हर शाम
हम यूँ ही ढुंढते रहे उसे
इन शेहेरों की गलियों में
बागों की कलियों में
कभी बारिश की बुंदों में
तो कभी बर्फ की वादियों मे
बस्स ढुंढते रहे...
ढुंढते ढुंढते थक गए
उस पुकार को ही भूल गए
शांत हुआ जब सारा मंजर
हमने देखा खुदके अंदर
तो कोई यूँ ही हसने लगा
फिरसे वैसे ही पुकारने लगा
चलो कही चलते है
नई राहें ढुंढते है
खुदको पाने के लिए
तेजी से और आगे बढते है
थक जाओ कभी तो
फिरसे ठेहेरते है
पुराने किस्सों को संभाल के
नई नई यादें बनाते है
चलो बसाते है अपनी ही दुनिया
ख्वाबों का घर
और यादों का झरना
दोस्ती की कश्ती
और यारों जैसी मस्ती
ना हो कोई चौखट
ना कोई किनारा
तैरते रहे समंदर में
जैसे अपना जग सारा
पर अब कभी रोना मत
हाथ जो थामा है, छोडना मत
हर वक्त जो बसता है तेरे अंदर
वो मन हूँ मै, ये कभी भुलना मत ||
By Rachana Chaitanya Navathe
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