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मन

Updated: Apr 30

By Rachana Chaitanya Navathe


मन

पुकार रहा था कोई

हर सुबह हर शाम

हम यूँ ही ढुंढते रहे उसे

इन शेहेरों की गलियों में

बागों की कलियों में

कभी बारिश की बुंदों में

तो कभी बर्फ की वादियों मे

बस्स ढुंढते रहे...


ढुंढते ढुंढते थक गए

उस पुकार को ही भूल गए

शांत हुआ जब सारा मंजर

हमने देखा खुदके अंदर

तो कोई यूँ ही हसने लगा

फिरसे वैसे ही पुकारने लगा

चलो कही चलते है

नई राहें ढुंढते है

खुदको पाने के लिए

तेजी से  और आगे बढते है

थक जाओ कभी तो

फिरसे ठेहेरते है

पुराने किस्सों को संभाल के 

नई नई यादें बनाते है

चलो बसाते है अपनी ही दुनिया

ख्वाबों  का घर

और यादों का झरना

दोस्ती की कश्ती

और यारों जैसी मस्ती

ना हो कोई चौखट

ना कोई किनारा

तैरते रहे समंदर में

जैसे अपना जग सारा

पर अब कभी रोना मत

हाथ जो थामा है,  छोडना मत

हर वक्त जो बसता है तेरे अंदर

वो मन हूँ मै,  ये कभी भुलना मत ||

                               

By Rachana Chaitanya Navathe


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