By Krunal Rangari
जिस निकला गांव से,
मेरी माँ खूब रोई,
पिताजी की आँखें भी कुछ नम हुई।
दो-चार आंसुओं के साथ खुश था मैं,
लगा जैसे:-
‘बरसो पुरानी किस्मत जाग उठी है जो अब तक थी सोई।‘
शहर के रास्ते में अपने गांव को ढूंढ़ला होते देखा,
मेरी आँखों में बसे खेतों को ऊँची-ऊँची इमारतों से बदलते देखा।
देखा एक ख्वाब मैंने:
अपना घर, अपनी मोटरकार का।
महानगर की धूल में,
मैं इस तरह मिल गया,
अपने गांव की मिट्टी का रंग,
मेरे अंग से कुछ यूँ धूल गया।
जब तक लौटा गांव वापस, माँ जा चुकी थी,
हाय! मेरी लालची किस्मत,
मैं अपने मकान का बोझ ढोते-ढोते,
माँ को कंधा देना भूल गया।
जिस दिन पहुँचा शहर में,
मेरी माँ जा चुकी थी,
पिताजी की आँखें भी बंद हो चुकी थी।
एक मकान, एक मोटरकार के साथ अकेला था मैं,
लगा जैसे:-
‘जागी हुई किस्मत हमेशा के लिए सोई थी।‘
By Krunal Rangari
Fantastic lines
This was awesome!!! Lots of love!
This was incredible
GOOD Poem. You transfer your's wishes in heart in sentence...
Tragic End of poem. Heart touching. I hope you don’t compromise any thing in your life.