By Pushpa Karn
इस दनिुनियाँके उपवन मेंपादपों के ठूंठ खड़ेहैं
जाती हैयेनज़र जहाँतक कंक्रीटों के महल बड़े बड़े हैं
ना झमू -झमू डालि याँअब गातीं हैं
ना हरि याली की तरुणाई मेंपरुवईया इठलाती है
ना ति तलि याँसनु हरेपखं ोंवाली पष्ुपों पर मडं राती हैं
ना भ्रमर गनु -गनु गजिंुजित मधकु र गजंु न करतेहैं
आतरु सनु नेको वि हग गजंु न कलरव
नि शदि न रहतेकान खड़ेहैं
जाती हैयेनज़र जहाँतक कंक्रीटों के महल बड़े बड़े हैं।
इस दनिुनियाँके उपवन मेंपादपों के ठूँठ खड़ेहैं
जाती हैयेनजर जहाँतक कंक्रीटों के महल बड़े बड़े हैं।
स्वच्छ सदंुर था जो नील गगन
उसपर छाई धएंु ँकी काली परछाईं है
इस दनिुनियाँपर समझो अब तो
बस शामत ही आई है
हो चला हैमद्धम सरूज भी अब तो
शीतलता चाँद की गरमाई है
प्रकृति की ख़शु हाली के मध्य
अवरोधक मानव स्वार्थ खड़ेहैं
जाती हैयेनज़र जहाँतक कंक्रीटों के महल बड़े बड़े हैं।
इस दनिुनियाँके उपवन मेंपादपों के ठूँठ खड़ेहैं
जाती हैयेनजर जहाँतक कंक्रीटों के महल बड़े बड़े हैं।
दि खतेनहींमखमली घासों पर ओस के मोती
प्रदषूण से होकर प्रभावि त
मद्धम हो चली हैनयनों की ज्योति
आधनिुनिकता के आवरण तले
मानवीय सधिुधि सड़ी गली है
यद्ुधों का शोर हैचहुँओर
वि ज्ञान वरदान नहींअब
परमाणुबम नि र्मि तर्मि रावण ना सकु ड़ेहैं
जाती हैयेनज़र जहाँतक कंक्रीटों के महल बड़े बड़े हैं।
इस दनिुनियाँके उपवन मेंपादपों के ठूँठ खड़ेहैं
जाती हैयेनजर जहाँतक कंक्रीटों के महल बड़े बड़ेहैं।
प्रकृति के गर्भ मेंकंकड़ जो उपजाओगे
माताओंके कोख सेजन्मेनवांकुर
पाषाण ही तो पाओगे!?
खेत न होंगेखलि हान न होगा
भरनेको पेट अनाज न होगा
फि र कहो हेमानव !
स्वाद अनाज का तमु कैसेचख पाओगे?
रुष्ट हो जाएगी जो अन्नपर्णाू र्णा माता तो
कहो ! हेमानव !
तमु कैसेउन्हेंमनाओगे?
जो होगा ना वक्षृ तो वर्षा भी न होगी
ना त्योहार होगा, ना सस्ं कार होगा
और ना अपनी सस्ं कृति ही होगी
ना जंगल होगा ना राजा जंगल का होगा
कहो! हेमानव !
जंगल का राजा शरे हैबच्चों को कैसेबतलाओगे?
न रहेगा जल तो धरती पर जीवन न रहेगा
चेतो ! अब तो सोचो हेमानव !
वक्षृ स्वरूप मेंरक्षक बनकर परमात्मा ही तो खड़ेहैं
जाती हैयेनज़र जहाँतक कंक्रीटों के महल बड़े बड़ेहैं।
इस दनिुनियाँके उपवन मेंपादपों के ठूँठ खड़ेहैं
जाती हैयेनजर जहाँतक कंक्रीटों के महल बड़े बड़ेहैं।
By Pushpa Karn
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