By Dr. Amit Prakash
नवजात बच्ची की व्यथा….
काँटों के शहर में,
फूल सी मैं,
कोमल, चंचल, सौन्दर्या,
पर उनकी नज़र में, भूल थी मैं;
मेरा होना,
गवारा ही नहीं,
के वारिसों की बगिया में,
दायित्व का शूल थी मैं;
सियासत, जुमले,
ख़ूब सजे,
कागज़ में इन्साफ हुआ,
पर उन्ही पन्नों की धूल थी मैं;
कानून लाँघते,
मेरे अपने,
निर्लज्ज, धूर्त, कपटी, क़ातिल,
पर उन्हें कहाँ क़ुबूल थी मैं;
मैं काली का रूप प्रखर,
मेरा सेज तो कूड़ा-घर,
रोती, सिसकती, जीवन-प्यासी,
परिवार-वृक्ष पे फ़िज़ूल थी मैं;
कोमल, चंचल, सौन्दर्या,
पर उनकी नज़र में भूल थी मैं…||
By Dr. Amit Prakash
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