By Advitiya Shukla
'निशब्द'
था निशब्द
क्यों मैं कल था निशब्द
खौल उठा है मेरा रक्त
क्यों मैं कल था निशब्द
कल रहता था शांत मैं
रोता था एकांत में
होंठ मेरे थे सिले पर चीख़ थी ब्रह्मांड में आग जो हृदय में थी आज मैं करूँगा व्यक्त क्यों मैं कल था निशब्द
क्यों मैं कल था निशब्द
तप में ख़ुद के तप रहा हूँ जीवन की दौड़ में थक रहा हूँ मौन धारण मैं किए आत्मपरिचय लिख रहा हूँ विष का घूंट पीते-पीते
बन गया हूँ मैं नरभक्ष क्यों मैं कल था निशब्द क्यों मैं कल था निशब्द
कल को मैंने कल पे छोड़ा कल ने मुझको फल दिया ज़िन्दा रह के मरना है ऐसा मुझको हल दिया रोज़-रोज़ मर के मैं
आज हूँ एक जीता शव क्यों मैं कल था निशब्द
क्यों मैं कल था निशब्द
मानवता को मरता देख
जलते शवों से आँखें सेक
मौत से कर मित्रता
मौत बन गया हूँ एक एक ही है अंत यहाँ
एक ही तो है प्रारब्ध
क्यों मैं कल था निशब्द
क्यों मैं कल था निशब्द
क्यों मैं कल था निशब्द...
POEM 2- 'प्रेमामृत'
इस प्रश्न के जैसे जीवन का हम प्रियतम उत्तर लिख बैठे लिखना था कुछ और कदाचित
नाम तुम्हारा लिख बैठे निकट तुम्हारे बैठे तो फिर जीवन क्या है ज्ञात हुआ ज्ञात हुआ कि लिखते लिखते गीत प्रणय का लिख बैठे
विकल हृदय, अतृप्त प्यास थी जोगी सा जीवन मेरा
पा कर तुमको इस जीवन का सार सफल हम कर बैठे
मैं कान्हा सा चंचल बालक तुम राधा सी शांत प्रिये
मिल कर राधा-कान्हा सम अभिसार सफल हम कर बैठे
कमल अधर जब धरे अधर पर प्रेमामृत तुम पिला गए इन अधरों से अधरों का व्यापार सफल हम कर बैठे
दृग हैं मृग से, देह कनक सी, केश हों काली रात कोई तुम पर लिखकर शब्दों का
श्रृंगार सफल हम कर बैठे
तुम मिले तो सूने सपनों को एक संबल सा मिल गया प्रिये प्रेयसी तुम संग सपनों का संसार सफल हम कर बैठे
तुम पर कविता क्या लिखी भाषा ही सुंदर हो गई
उपमा भाषा अलंकार उद्गार सफल हम कर बैठे
By Advitiya Shukla
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