By Chanda Arya
भोर का वो सूरज, माँ की बड़ी सी
लाल बिन्दी सा लगता है...........
तब पूरा आकाश ही माँ का चेहरा हो जाता है,
फिर वो सूरज अपनी तपन से तपाता नहीं मुझे,
ममता भरी आँच से सहला जाता है मुझे।
भोर का वो सूरज अपनी लालिमा
ठंडी बयार में रिला-मिला देता है,
लाली लिये हुए वो हवा का झोंका
लोरी की सी गर्माहट लिये आता है
ज्यों छू कर निकल जाता है मुझे,
माँ की थपकी का सा स्पन्दन दे जाता है मुझे।
मैं हूँ सोच में गुमसुम..........अर्धचेतन......
माँ, भोर में न दो यूँ थपकी मुझे
क्यूँकि.......
ये स्पन्दन अब सुलाता नहीं मुझे .....वरन्
विचलित सा कर जाता है किंचित मुझे,
ढूंढने लगता है ये अधीर मन,
होकर बावरा इधर-उधर तुझे,
न पाता कहीं तो शिशु सा उद्वेलित हो उठता है ये।
इसे नहीं आता अभी बड़ों का सा मन को बहलाना .....
दूरियों को नापना और मन में सँजो कर रख लेना,
दूर है कितना घर तेरा .....तेरे मन के गलियारे.....,माँ
नहीं आता है इसे अभी उँगलयों पर गिनना,
अपना प्रतिबिम्ब दिखा कर प्रकृति के हर रूप में
भ्रमित न करो माँ मुझे, यूँ मुझसे निकट होने का।
रूठ कर जाने के पथ हैं बड़े सीधे - सपाट
लौट कर आने की वीथियां हो जातीं बड़ी दुरूह
सांझ होने में तो हैं शेष हैं कई पहर अभी
भोर में यूँ साँझ का दर्पण न दिखाओ माँ,
तुम कहीं न जाओ माँ
तुम लौट कर आओ माँ।
भोर का वो सूरज माँ की बड़ी सी
लाल बिन्दी सा लगता हे............तब पूरा आकाश ही माँ का चेहरा हो जाता है।
By Chanda Arya
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