By Poonam Saroj
कह देते हैं लोग कुछ भी कभी भी,
कुछ यूं ही । बस अपना मन हल्का करने को।
बस हम ही पलट कर जवाब नहीं दे सकते।
क्योंकि लड़कियां हैं न हम।
कब हारीं हैं लड़कियां, किसी समाज से?
उन्होंने तो अपनों से ही मात खाई है।
बाप भाई ने ही खोदी है कब्र हमारी
लाल रंग में करके विदाई है।
और हम चुपचाप सह लें हर सितम,
क्योंकि लड़कियां हैं न हम।
देकर थोड़ी सी ढील खुंटी से,नाम आजादी का है दिया।
कुछ इस तरह से पुरुष ने,खुद को दुनिया में है महान किया।
क्योंकि हों सशक्त महिला कब इनसे सहन हुआ है,
गर चांद तक भी गयी कोई तो उसको भी नाम
गलत इमान का ही दिया है।
सही पथ से कब कोई आगे बढ़ सकती है,
क्योंकि लड़कियां हैं न हम।
ताउम्र लड़कियां गुलामी में ही जीतीं है
कभी पिता, कभी भाई, कभी पति, तो कभी कोई।
इन सबकी ख़ुशी के लिए प्रतिदिन मर रहीं हैं
मगर कब किसी को यह एहसास भी हुआ है।
हम तो हर जगह बस पराई हैं।
जबर्दस्ती इन सबकी जिंदगी में जो आईं हैं।
सजाती रहे घर इनका बस यही चाहतें हैं इनकी,
गलती से भी सपने न देख सके हम कोई।
वरना कौन इनकी इज्जत सम्हालेगा।
बिना किसी वेतन के कौन इनका चौका बासन करेगा।
सबकुछ करने के बाद भी कौन इनकी गालियां सुनेगा
कौन इनका गुस्सा सहेगा। बावजूद इसके कुछ
भी हमारा अपना नहीं है।
यही किस्मत है हमारी।
क्योंकि लड़कियां हैं न हम।
By Poonam Saroj
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