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कृष्ण कि कृष्णा द्रौपदी

By Payal K Suman



कृष्ण और कृष्णा की गाथा मुझको तुम्हें सुनानी है 

एक द्वारकाधीश बने दूजी भारत कि साम्राज्ञी है।


जन्म हुआ था यज्ञ से उसका याज्ञसैनी कहलाई 

श्याम रंग पाकार अग्नि से कृष्ण की कृष्णा बन आई,


पांचाल राज्य की पांचाली द्रुपद की कन्या द्रौपदी 

कितने हीं नाम पाए उसने चंचला, अद्भुत और हठी,


पिता को मान्य नहीं थी वो दुर्भाग्य पाकर जन्म हुआ 

मन मारा उसने हर समय जबरन हीं हर एक कर्म हुआ,


एक नजर में भाया जो अंगराज उसे देख शरमाई 

परंतु पिता के वचनों की खातिर भरी सभा में सूत पुत्र उसे कह आई,


दूजा वह युवक जिसके कौशल पर वह इतराई 

उसको पाने के साथ-साथ कलंक का टीका लगा आई,


अभी-अभी तो घमंड हुआ था उसको अपने भाग्य पर 

मां कुंती ने पर बांट दिया उसको भोजन के स्थान पर, 


ना पत्नी ना भार्या ना प्रेमिका हीं बन पाई 

पांच-पांच पतियों को पाकर अब थी वैश्या भी कहलाई,


प्रेम से थी वंचित स्वयं प्रेम ही उसका मित्र बना 

सर पर रखा हाथ कृष्ण ने किस्मत का नया चित्र बना,


खांडवप्रस्थ की बंजर भूमि जिस पर सर्पों का डेरा था 

अब बन गया था महल वहां जिसे माया सुर ने खुद चमत्कारों से घेरा था,


कितने वर्षों के कठिन परिश्रम से पांडवों ने यह काम किया 

दूर-दूर तक राज्य भी उन्होंने था अपने अब नाम किया,


देख कर उनका सौभाग्य जब दुर्योधन ने मन को जलाया था 

मृगतृष्णा समझ कर उसने जल में खुद को हीं भिगाया था,


देख के उसकी ये दशा सबका ही मन तो हरषाया था 

पर सिर्फ द्रौपदी की मुस्कान ने हीं उसके जी के आग को भड़काया था,


अगली बार अपनी सभा में उसने कृष्णा को भी बुलवाया था 

लेना था प्रतिशोध उसे पर चौसर के खेल का बहाना उसने लगवाया था,



मामा शकुनि की मदद से उसके ही पतियों से उसने 

उसे जुए में हरवाया था

बन चुकी थी साम्राज्ञी जो अब 

पल भर में उसे दासी अपनी कहलवाया था,


एक वस्त्र में लिपटी थी वह नारी उस समय रजस्वला

पर भूल गए थे सारे यह सखी है कान्हा की 

नहीं है कोई अबला,


बढ़ाकर अपना हाथ जब दुश्शासन चीर हरण करने को आया 

पांचाली के तन पर उसने अथाह कपड़ों का घेरा पाया,


लगा रहा संध्या तक उसने पर कपड़ों का थाह ना पाया 

जा गिरा भूमि पर दुश्शासन खुद उसने था चक्कर खाया,


जान गए थे सारे अब ये, थी यह स्वयं कृष्ण की माया 

गलती की थी उन सब ने जो कृष्णा को था हाथ लगाया,


लिखा गया उसी समय अब सभा में बैठे सभी का अंत 

दुश्शासन, दुर्योधन हो या खुद भीष्म पितामह जैसे संत,


हुए वनवासी पांडव फिर से यह था उनके कर्मों का फल 

प्यास से वे तड़प रहे थे पर विष मिला हुआ था जल,


दूसरी तरफ कृष्णा को देखो जिसे मिला था कृष्ण शरण 

कांटों से भरे उस वन में कोई कांटा ना भेद पाया उसके चरण,


13 वर्षों बाद अब देखो काल उन दुष्टों का आया 

कृष्ण ने कृष्णा के लिए छल को अपना हथियार बनाया,


हृदय रोया कृष्णा का अश्रु कृष्ण की आंखों में आया 

न्याय दिलाने की खातिर उसने युद्ध का भीषण खेल रचाया,


जिन केशों को पकड़ दुश्शासन पांचाली को सभा में लाया था 

उन केशों को उसी के रक्त से भीम ने भीगाया था,


जिस जंघा पर दुर्योधन ने द्रौपदी को बैठाने का आदेश दिया 

उस मांस के टुकड़े को भीम ने उखाड़ कर फेंक दिया,


अधर्म होता देख गंगा पुत्र ने पाप को था गले लगाया

अर्जुन के बाणों ने देखो उन्हें बाणों की शैय्या पर सुलाया,


लीलाधर ने अपनी लीला से कर्ण, द्रोण, शकुनी को भी मोक्ष दिया 

धर्म का परचम लहराने को समय भी उसने रोक दिया।


By Payal K Suman



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