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किसको लिखूँ, किसको बताऊँ

By Deepika



किसको लिखूँ, किसको बताऊँ

सोचती हूँ क्या, ये कैसे समझाऊँ


सुनो ज़्यादा बाहर मत जाओ , ये ठीक नहीं

गुज़रता ना कोई दिन ऐसा, जब मिलती ये सीख नहीं


बाहर ना भी जाऊँ पर ,भय तो अंदर भी है

बेशक पास ही में गुरुद्वारा,चर्च, मस्जिद, मंदिर भी है


मैं हैरान हूँ कि, कैसा ये कलयुग का इंसान है

देवी को पूजता, पर औरत के लिया बना हैवान है


ज़ुल्म जो हो रहा, सुन लिया बहुत खबर अख़बारों में

अब तो वो हो, जो छप जाए इतिहास की दीवारों में


ये कैसी संस्कृति, सभ्यता हम अपना रहे हैं

महिला को बेचारी जानकर बस ‘दिवस’ मना रहे हैं


अरे ये देश तो माँ सीता और द्रौपदी का है

जिनके आत्मसम्मान में रामायण, महाभारत बन गई


पर बिडंबना अब देखिये कि, गुहनेगार को सज़ा दिलाने में

आपस में ही ठन गई


अब कितना डरूँ मैं , कितना चिल्लाऊँ

सुनेगा कोई नहीं , तो क्यों ना ख़ुद ही शस्त्र उठाऊँ


मेरे साथ ऐ ‘हर’ नारी , तुम भी अब उठ जाओ

बेचारगी छोड़ो, और शक्ति बनने में जुट जाओ


यहाँ हर बार ना आएँगे कृष्ण, लज्जा बचाने

जहां हर गली घूम रहें हो सरफिरे दीवाने


अब सोलह शृंगार में एक और जोड़ दो

दामन जो खींचे वो बाँह तोड़ दो


लौ बनी बहुत, अब चिंगारी बनने की बारी है

डरो नहीं तुम करो सामना, यही पहचान तुम्हारी है


अबला बनकर जीना, ये तुम्हारी छाप नहीं

हत्यारों का सिर काटना, अब ये कोई पाप नहीं


मज़बूत बनो, चहूँ दिशाओं में नाम कमाओ

प्रेरणा है ‘नारी जीवन’ , अगली पीढ़ी को भी बताओ


आख़िर कब तक भागूँ , कितना दूर जाऊँ

मैं किसको लिखूँ, किसको बताऊँ

सोचती हूँ क्या, ये कैसे समझाऊँ ।


By Deepika



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