By Manisha Keshab
बिखरी हुई राहों को मुठ्ठी में बंद किए
गुमान की चादर ओढ़े
मैं निकल पड़ी ज़िंदगी की जुस्तजू में।
अनजानी गलियों में ढूंढती फिरती
ज़िंदगी मुझे या फ़िर शायद
मैं ही ज़िंदगी को
एक बोरी में समेट कर घसीट रही थीं।।
आगे था अधूरे ख्वाबों का कोहसर
अनगिनत हसरतों का दरिया।
ना दुनिया का लिहाज़ था
ना पीछे देखने की ताक़त।
बस एक ही ज़िद थी
तुझे देखने की।
दिल ए तमन्ना तुझे महसूस करने की।
तरसती हुई आंखे,
बिन बादल के बरसात की उम्मीद
और बुलंद हौसले को झांझर बना कर
अनजान रास्तों में भटक रही थी
पर तेरी जुस्तजू तब भी जारी थी।।
कायनात की साजिश कहूं या
फ़िर तकदीर का मुस्तकबिल ।
जो तूने मुझ पर रहम फरमाया
मेरा हाथ थामा और
मेरी मुझसे पहचान करवाई।
घसीटा हुआ बोरा मानो खाली हो गया ।
सारे गिले शिकवे जैसे तूने निगल लिए ।
मन में जगाई एक नई उम्मीद
जिंदगी जीने के लिए।
नए रंगो में लिपटे हुए झूमते हुए
ख्वाब देखने लगी
वही मेरी पुरानी दुनिया फ़िर से ।।
ऐ जिंदगी, मुझे तू मिल गई।
अब कोई डर नहीं
न कोई बंदिश
मैं फ़िर से तेरे ही इश्क में मीरा बन गईं।।
By Manisha Keshab
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